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कविता

ज्यों सोने की किरन धरी हो

प्रदीप शुक्ल


दुख का कुहरा
ओझल हो
जब आशा की उजास बिखरी हो
आओ गीत लिखें कुछ जिनमें
जीवन की मुस्कान भरी हो
पौ फटने से
पहले उठ कर
लंबी सड़कें चलो नाप लें
सड़क किनारे टपरी वाली
चाय पिएँ, कुछ आग ताप लें
बेसुध सोए
बच्चे देखें
भले पास केवल कथरी हो

नहीं पढ़ें अखबार
चलो कुछ
बूढ़े बाबा से बतियाएँ
वापस चलें समय में पीछे
उनको बचपन याद दिलाएँ
चलें पुराने गाँव
जहाँ पर
रक्खी यादों की बखरी हो

रामदीन
रिक्शे पर बैठा
अभी एक कप चाय पिएगा
मफलर कस कर महानगर की
सड़कों पर फिर समर करेगा
उसके माथे पर
सूरज ने
ज्यों सोने की किरन धरी हो।
 


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